दुनिया की रंगत देख चुका वह युगल
धीरे-धीरे चल रहा है
गोधुलि बेला है
मांसपेशियां पहले का आकार छोड चुकी हैं
काले बाल रुई का आकार ले चुके हैं
न चाल में त्वरा ,न आवाज में वजन
वहीं बोल रहे हैं, वही सुन रहे हैं
चक्की के दो पाट हैं ये
चलते-चलते थक गये अब
अपने हिस्से का पुरा पिसान दे चुके हैं दुनिया को
मोटे को महीन बनाया
बहुत सुपाच्य
दोनों चल रहे हैं, हल्का सा फासला लिए
लगातार घिसने के बाद जैसे पाट ले लेते हैं
न ले, तो टकरा जाएं बार-बार
बीच में छुट गयी यह जगह
वह गलियारा है
जहां से हवा गुजरती है
और यादें भी...
(हरीशचन्द्र पांडॆ की कविता)
Saturday, November 15, 2008
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