Saturday, November 15, 2008

एक घर था

एक घर था
जिसमें रहते हुए
हम रहना नहीं चाहते थे उसमें

हम चाहते थे एक ऐसा घर
जिसमें हवा आती हो
रोशनी आती हो
और जिसकी खिडकियां
सपनों की राह न रोकती हों

हमें मिला भी एक घर
जिसमें कई खिडकियां थीं
और जगह हमारी सोच से ज्यादा
इतनी ज्यादा
कि दो जनों के बीच
अब जगह ही जगह थी

वहां सपने
हवा के साथ मिलकर
खाली जगह में
बवंडर की तरह मंडरा रहे थे

(जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविता)

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