एक घर था
जिसमें रहते हुए
हम रहना नहीं चाहते थे उसमें
हम चाहते थे एक ऐसा घर
जिसमें हवा आती हो
रोशनी आती हो
और जिसकी खिडकियां
सपनों की राह न रोकती हों
हमें मिला भी एक घर
जिसमें कई खिडकियां थीं
और जगह हमारी सोच से ज्यादा
इतनी ज्यादा
कि दो जनों के बीच
अब जगह ही जगह थी
वहां सपने
हवा के साथ मिलकर
खाली जगह में
बवंडर की तरह मंडरा रहे थे
(जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविता)
Saturday, November 15, 2008
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