मन समर्पित तन समर्पित
और यह जीवन समर्पित
चाहता हूं देश की धरती तूझे कुछ और भी दूं
मां तुम्हारा रिन बहुत है, मैं अकिंचन
किंतु इतना कर रहा फिर भी निवेदन
थाल में लाउं सजा कर भाल जब भी
कर दया स्वीकार लेना यह समर्पण
गान अर्पित प्राण अर्पित
रक्त का कण कण समर्पित
चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं
मांज दो तलवार , लाओं न देरीं
बांध दो कस कर कर कमर पर ढाल मेरी
भाल पर मल दो चरण की धुल थोडी
शीश पर आशीश की छाया घनेरी
स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित
आयु का छण छण समर्पित
चाहता हुं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं
तोडता हुं मोह का बंधन, क्षमा दो
गांव मेरे, द्वार, घर, आंगन क्षमा दो
आज सीधे हाथ में तलवार दे दो
और बाऐं हाथ में ध्वज थमा दो
यह सुमन लो, यह चमन लो
नीड का रिन रिन समर्पित
चाहता हुं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं
(राम अवतार त्यागी की कविता)
Saturday, November 15, 2008
मीठा पानी
घर लौटकर मैंने पत्नी को बैग थमाया । मेरे हाथ में पानी की बोतल थी,वह भी साथ ही थमाई,पानी की बोतल में पानी देखकर वह हैरानी से बोली ,"अरे सुबह वाला पानी अभी तक बच रहा है? गर्मी तो बहुत थी पिया नही क्या?" अरे नही ,चंडीगढ बस स्टैंड पर कुछ समय के लिए बस रुकी थी ,यह तो वहां से दोबारा भरा हुआ है.
सुनते ही उसकी आंखों में चमक आ गई. , खुशी से चमकती हुई बोली , अहा चंडीगढ का पानी तो बहुत मीठा होता है
क्योंकि वहां तुम्हारा मायका है इसलिए ? मैने कहा तो वह इतराती हुई बोली, और क्या ! कहकर उसने ढक्कन खोला और बोतल मुंह से लगाकर गटगट पानी पीने लगी. मुझे तो ऐसा कोई फर्क लगा नहीं, मैनें कहा तो उसने सुना ही नही । मुझसे बेपरवाह वह पानी में मग्न ,उसकी मिठास में खो-सी गई ।
मेरा मन एकदम से कडवा हो गया कहे बिना न रह सका , कैसी औरत हो तुम जो शादी के दस साल बाद भी तुम्हें ससुराल के पानी की मिठास महसुस नही हुई । सुनते ही पानी उसके गले में में पानी अटक गया , बोतल मुंह से हटाकर पहले धीरे-धीरे पानी गटका फिर आहत स्वर में बोलीं, " मनोज ...ससुराल का पानी तो बहुत ही मिठा है ! ये तो आज अपने शहर का पानी देखा तो पीछे छुटा सब याद आ गया...! खैर ! छोडो, तुम नही समझोगे , मेरी आंखों में आंखें गडाती हुई वह रोषपूर्वक बोली थी, तुम कभी भी नही समझोगे ।
( अरुण कुमार की लघुकथा)
सुनते ही उसकी आंखों में चमक आ गई. , खुशी से चमकती हुई बोली , अहा चंडीगढ का पानी तो बहुत मीठा होता है
क्योंकि वहां तुम्हारा मायका है इसलिए ? मैने कहा तो वह इतराती हुई बोली, और क्या ! कहकर उसने ढक्कन खोला और बोतल मुंह से लगाकर गटगट पानी पीने लगी. मुझे तो ऐसा कोई फर्क लगा नहीं, मैनें कहा तो उसने सुना ही नही । मुझसे बेपरवाह वह पानी में मग्न ,उसकी मिठास में खो-सी गई ।
मेरा मन एकदम से कडवा हो गया कहे बिना न रह सका , कैसी औरत हो तुम जो शादी के दस साल बाद भी तुम्हें ससुराल के पानी की मिठास महसुस नही हुई । सुनते ही पानी उसके गले में में पानी अटक गया , बोतल मुंह से हटाकर पहले धीरे-धीरे पानी गटका फिर आहत स्वर में बोलीं, " मनोज ...ससुराल का पानी तो बहुत ही मिठा है ! ये तो आज अपने शहर का पानी देखा तो पीछे छुटा सब याद आ गया...! खैर ! छोडो, तुम नही समझोगे , मेरी आंखों में आंखें गडाती हुई वह रोषपूर्वक बोली थी, तुम कभी भी नही समझोगे ।
( अरुण कुमार की लघुकथा)
रिश्ते
उनके लिए रिश्ते
अखबार से ज्यादा कोई अहमियत नही रखते थे
जब तक ताजे थे डिमांड में थे
बासी होते ही
पुरानी तारीख की नाईं
कैलेंडर के सीने से उतर जाते थे
एक बार उन्होंने मुझे एक खत लिखा
खत में उन्होंने लिखा
कि मैं और वे एक ही वेवलेंथ पर धडकते थे
मैंने सोचा,सोचा ,बहुत सोचा
मुझॆ उनके कथन में सच्चाई नजर आई
वे बाजार के रंग में
होली के रंगो को डुबोते रहे
मैं स्याह गलियों और कूंचों में
टेशु के रंग तलाशती रही
और जल्दी ही बासी हो गई
उन्होंने रिश्तों की राख को एक कैप्सुल में बंद कर
औरबिट में भेज दिया
ताकि उसे चंद्रमा की सतह पर फैलाया जा सके
उन्होंने रिश्तों का एक नया इतिहास लिखा
जिसमें मरें हुए रिश्तों की शांति के लिए
दो मिनट का मौन शामिल था
(किरण अग्रवाल की कविता)
अखबार से ज्यादा कोई अहमियत नही रखते थे
जब तक ताजे थे डिमांड में थे
बासी होते ही
पुरानी तारीख की नाईं
कैलेंडर के सीने से उतर जाते थे
एक बार उन्होंने मुझे एक खत लिखा
खत में उन्होंने लिखा
कि मैं और वे एक ही वेवलेंथ पर धडकते थे
मैंने सोचा,सोचा ,बहुत सोचा
मुझॆ उनके कथन में सच्चाई नजर आई
वे बाजार के रंग में
होली के रंगो को डुबोते रहे
मैं स्याह गलियों और कूंचों में
टेशु के रंग तलाशती रही
और जल्दी ही बासी हो गई
उन्होंने रिश्तों की राख को एक कैप्सुल में बंद कर
औरबिट में भेज दिया
ताकि उसे चंद्रमा की सतह पर फैलाया जा सके
उन्होंने रिश्तों का एक नया इतिहास लिखा
जिसमें मरें हुए रिश्तों की शांति के लिए
दो मिनट का मौन शामिल था
(किरण अग्रवाल की कविता)
एक घर था
एक घर था
जिसमें रहते हुए
हम रहना नहीं चाहते थे उसमें
हम चाहते थे एक ऐसा घर
जिसमें हवा आती हो
रोशनी आती हो
और जिसकी खिडकियां
सपनों की राह न रोकती हों
हमें मिला भी एक घर
जिसमें कई खिडकियां थीं
और जगह हमारी सोच से ज्यादा
इतनी ज्यादा
कि दो जनों के बीच
अब जगह ही जगह थी
वहां सपने
हवा के साथ मिलकर
खाली जगह में
बवंडर की तरह मंडरा रहे थे
(जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविता)
जिसमें रहते हुए
हम रहना नहीं चाहते थे उसमें
हम चाहते थे एक ऐसा घर
जिसमें हवा आती हो
रोशनी आती हो
और जिसकी खिडकियां
सपनों की राह न रोकती हों
हमें मिला भी एक घर
जिसमें कई खिडकियां थीं
और जगह हमारी सोच से ज्यादा
इतनी ज्यादा
कि दो जनों के बीच
अब जगह ही जगह थी
वहां सपने
हवा के साथ मिलकर
खाली जगह में
बवंडर की तरह मंडरा रहे थे
(जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविता)
रेत में कलाकार
बालु के कण-कण साथ ले चलो उड जा हारिल की नाईं
सुबह हुई अब सपने छुटे उठ जा हरकारे की ठाई।
ठोक-पीटकर आकति दे दो बांधो नदी नाव की खाई
जग जीतो सब लहरें गिन कर लो तट को वश में साईं ।
मेरे हाथों में है ताकत बढो सजन पथ मान दो
तेरी मुट्ठी में दुनिया है बांधो हाथ विराम न दो ।
बालु गंगा का स्वरुप है गंगा क्या इतनी -सी ,पर है
बालु-बालु में प्रवाह को किसने धारा दी,जी भर है।
लोग रहेंगे आते-जाते तन भर तुझको देखेंगे
उठते-गिरते जो संभलेंगे मन भर तुमको भेटेंगे।
इस या उसकी बात नही है हर आकति में तेरा बल है
जो दुनिया से चलकर जाता तेरी नजरों की हलचल है
(श्रीप्रकाश शुक्ल की कविता)
सुबह हुई अब सपने छुटे उठ जा हरकारे की ठाई।
ठोक-पीटकर आकति दे दो बांधो नदी नाव की खाई
जग जीतो सब लहरें गिन कर लो तट को वश में साईं ।
मेरे हाथों में है ताकत बढो सजन पथ मान दो
तेरी मुट्ठी में दुनिया है बांधो हाथ विराम न दो ।
बालु गंगा का स्वरुप है गंगा क्या इतनी -सी ,पर है
बालु-बालु में प्रवाह को किसने धारा दी,जी भर है।
लोग रहेंगे आते-जाते तन भर तुझको देखेंगे
उठते-गिरते जो संभलेंगे मन भर तुमको भेटेंगे।
इस या उसकी बात नही है हर आकति में तेरा बल है
जो दुनिया से चलकर जाता तेरी नजरों की हलचल है
(श्रीप्रकाश शुक्ल की कविता)
गोधुलि
दुनिया की रंगत देख चुका वह युगल
धीरे-धीरे चल रहा है
गोधुलि बेला है
मांसपेशियां पहले का आकार छोड चुकी हैं
काले बाल रुई का आकार ले चुके हैं
न चाल में त्वरा ,न आवाज में वजन
वहीं बोल रहे हैं, वही सुन रहे हैं
चक्की के दो पाट हैं ये
चलते-चलते थक गये अब
अपने हिस्से का पुरा पिसान दे चुके हैं दुनिया को
मोटे को महीन बनाया
बहुत सुपाच्य
दोनों चल रहे हैं, हल्का सा फासला लिए
लगातार घिसने के बाद जैसे पाट ले लेते हैं
न ले, तो टकरा जाएं बार-बार
बीच में छुट गयी यह जगह
वह गलियारा है
जहां से हवा गुजरती है
और यादें भी...
(हरीशचन्द्र पांडॆ की कविता)
धीरे-धीरे चल रहा है
गोधुलि बेला है
मांसपेशियां पहले का आकार छोड चुकी हैं
काले बाल रुई का आकार ले चुके हैं
न चाल में त्वरा ,न आवाज में वजन
वहीं बोल रहे हैं, वही सुन रहे हैं
चक्की के दो पाट हैं ये
चलते-चलते थक गये अब
अपने हिस्से का पुरा पिसान दे चुके हैं दुनिया को
मोटे को महीन बनाया
बहुत सुपाच्य
दोनों चल रहे हैं, हल्का सा फासला लिए
लगातार घिसने के बाद जैसे पाट ले लेते हैं
न ले, तो टकरा जाएं बार-बार
बीच में छुट गयी यह जगह
वह गलियारा है
जहां से हवा गुजरती है
और यादें भी...
(हरीशचन्द्र पांडॆ की कविता)
पीपल
कितना कूडा करता है आंगन में
मां को दिन में दो दो बार बोहारी फेरनी पडती है
कैसे-कैसे दोस्त यार आते हैं इसके
खाने को ये पिपलियां देता है
सारा दिन शाखों पे बैठे तोते ,घघू
आधा खाते ,आधा जाया करते हैं
गटक वटक सब आंगन ही में फेंक के जाते हैं
एक डाल पर ,चिडियों ने भी घर बांधे हैं
तिनके उडते रहते हैं दिन भर आंगन में
एक गिलहरी भोर से लेकर सांझ तलक
जाने क्या उजलत है
दौड-दौडकर दसियों बार ही सारी शाखें घूम आती है,
चील कभी ऊपर की डाली पर बैठी,बौराई सी
अपने आप से बातें करती रहती है
आस पडोस से झपटी ,लूटी ,हड्डी मांस की बोटी, भी कमबख्त ये कव्वे
पीपल ही की डाल पे बैठकर खाते हैं
हुश हुश करती है मां तो ये मांसखोर सब
काऐं काऐं उस पर फेंक के उड जाते हैं
फिर भी जाने क्युं मां कहती है : " ओ कागा...
मेरे श्राध्द पे आयो तू! अवश्य आयो! "
(गुलजार की कविता)
मां को दिन में दो दो बार बोहारी फेरनी पडती है
कैसे-कैसे दोस्त यार आते हैं इसके
खाने को ये पिपलियां देता है
सारा दिन शाखों पे बैठे तोते ,घघू
आधा खाते ,आधा जाया करते हैं
गटक वटक सब आंगन ही में फेंक के जाते हैं
एक डाल पर ,चिडियों ने भी घर बांधे हैं
तिनके उडते रहते हैं दिन भर आंगन में
एक गिलहरी भोर से लेकर सांझ तलक
जाने क्या उजलत है
दौड-दौडकर दसियों बार ही सारी शाखें घूम आती है,
चील कभी ऊपर की डाली पर बैठी,बौराई सी
अपने आप से बातें करती रहती है
आस पडोस से झपटी ,लूटी ,हड्डी मांस की बोटी, भी कमबख्त ये कव्वे
पीपल ही की डाल पे बैठकर खाते हैं
हुश हुश करती है मां तो ये मांसखोर सब
काऐं काऐं उस पर फेंक के उड जाते हैं
फिर भी जाने क्युं मां कहती है : " ओ कागा...
मेरे श्राध्द पे आयो तू! अवश्य आयो! "
(गुलजार की कविता)
Subscribe to:
Posts (Atom)