Saturday, November 15, 2008

रेत में कलाकार

बालु के कण-कण साथ ले चलो उड जा हारिल की नाईं
सुबह हुई अब सपने छुटे उठ जा हरकारे की ठाई।

ठोक-पीटकर आकति दे दो बांधो नदी नाव की खाई
जग जीतो सब लहरें गिन कर लो तट को वश में साईं ।

मेरे हाथों में है ताकत बढो सजन पथ मान दो
तेरी मुट्ठी में दुनिया है बांधो हाथ विराम न दो ।

बालु गंगा का स्वरुप है गंगा क्या इतनी -सी ,पर है
बालु-बालु में प्रवाह को किसने धारा दी,जी भर है।

लोग रहेंगे आते-जाते तन भर तुझको देखेंगे
उठते-गिरते जो संभलेंगे मन भर तुमको भेटेंगे।

इस या उसकी बात नही है हर आकति में तेरा बल है
जो दुनिया से चलकर जाता तेरी नजरों की हलचल है

(श्रीप्रकाश शुक्ल की कविता)

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