कितना कूडा करता है आंगन में
मां को दिन में दो दो बार बोहारी फेरनी पडती है
कैसे-कैसे दोस्त यार आते हैं इसके
खाने को ये पिपलियां देता है
सारा दिन शाखों पे बैठे तोते ,घघू
आधा खाते ,आधा जाया करते हैं
गटक वटक सब आंगन ही में फेंक के जाते हैं
एक डाल पर ,चिडियों ने भी घर बांधे हैं
तिनके उडते रहते हैं दिन भर आंगन में
एक गिलहरी भोर से लेकर सांझ तलक
जाने क्या उजलत है
दौड-दौडकर दसियों बार ही सारी शाखें घूम आती है,
चील कभी ऊपर की डाली पर बैठी,बौराई सी
अपने आप से बातें करती रहती है
आस पडोस से झपटी ,लूटी ,हड्डी मांस की बोटी, भी कमबख्त ये कव्वे
पीपल ही की डाल पे बैठकर खाते हैं
हुश हुश करती है मां तो ये मांसखोर सब
काऐं काऐं उस पर फेंक के उड जाते हैं
फिर भी जाने क्युं मां कहती है : " ओ कागा...
मेरे श्राध्द पे आयो तू! अवश्य आयो! "
(गुलजार की कविता)
Saturday, November 15, 2008
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